Jamboo svaamee katha - जम्बू स्वामी का जीवन परिचय कथा

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Fri, Feb 09, 2024
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जम्बू स्वामी चरित्र

भारत ही नहीं विश्व में प्रसिद्ध मथुरा, लाखों श्रद्धालु यहां प्रतिवर्ष दर्शन एवं पर्यटन के लिए आते हैं। विभिन्न देशों से तथा देश के अनेक प्रांतों के लोग इस पावन नगरी में स्थानीय रूप से निवास भी करते हैं। उनकी मान्यता है कि भगवान कृष्ण एवं उनकी शक्ति राधा रानी की जन्म तथा क्रीड़ा स्थली में निरंतर भजन, दान परिक्रमा आदि करके वह अपना यह और परलोक सुधार सकते हैं। ऐसी भावना रखने वालों में सनातन धर्म के साथ जैन धर्म के अनुयायी भी शामिल हैं। जैन धर्म मानने वालों के लिए मथुरा नगरी का इसलिए विशिष्ट महत्व है कि यहां जम्बू स्वामी ने न सिर्फ गहन साधना की बल्कि यहीं मोक्ष प्राप्त किया।

नगर के उत्तर पश्चिम दिशा में स्थित है वह जैन धर्म का परम पावन भूखंड। सभी धर्म और संप्रदायों के श्रद्धालु इस भूमि को जैन सिद्ध क्षेत्र चैरासी के नाम से तथा अंतिम केवली के नाम से जानते हैं। अंतिम केवली का आशय यह कि जम्बू स्वामी ने ही सबसे बाद में यहां परम पद प्राप्त किया। विश्व की सबसे बड़ी जैन प्रतिमा अत्यंत पावन कहे जाने और विश्व में प्रसिद्ध सिद्ध क्षेत्र में जैन धर्म के लोगों ने जम्बू स्वामी की विश्व की सबसे बड़ी जैन प्रतिमा लगाने का निश्चय किया। सन् 2000 में भक्तों ने 65 टन वजन का एक ही ग्रेनाइट पत्थर कडूर पर्वत का खंड कर्नाटक से मंगवाया। 18 फुट ऊंची एवं 15 फुट चौड़ी तथा 7 फुट गहरी प्रतिमा बनाने के लिए देश के नामचीन कारीगर आर राधामाधव के शिष्य रमेश आचार्य की टीम ने 2004 में काम शुरू किया। तैयार प्रतिमा का वजन 55 टन रखने का लक्ष्य लेकर चले कारीगर एवं श्रद्धालुओं ने जम्बू स्वामी का स्वरूप पूरी तरह बना लिया है। इस प्रतिमा एवं उसके विशाल स्थल पर शुरुआत के दस साल बाद भी कार्य निरंतर चल रहा है।

राजनगर के धनी परिवार में जन्मे थे जम्बू स्वामी राजनगर के सेठ अर्हदास एवं जिनमती के यहां फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को जन्मे जम्बू कुमार वाल्यकाल से ही धर्मकर्म में प्रवीण थे। बिना शिक्षा प्राप्त किए ही धर्मानुसार कर्म करना तथा पुरुषार्थ में निपुण थे। उन्होंने महावीर स्वामी के बाद दूसरे केवली सुधर्माचार्य से दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात 12 प्रकार का तप किया। 11 साल तक कठोर तपस्या करने के बाद 45 वर्ष की उम्र में उन्हें केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई। इसके बाद 40 वर्ष तक देश-देशांतरों में विहार करते हुए जैन धर्म की पताका फहराई। लोगों को मोक्ष मार्ग का उपदेश देकर सच से अवगत कराया।

इतिहास बताता है कि जम्बू स्वामी विहार करते हुए संवत् 62 में मथुरा आए और यहीं 84 लाख योनियों के चक्र से छूटकर मोक्ष प्राप्त किया। जम्बू स्वामी के प्रथम बार मथुरा आने की जानकारी स्वप्न के माध्यम से राजस्थान के डीग कस्बा निवासी जोधराज को हुई। और जह उस स्वप्न की सच्चाई जानने के लिए जोधराज व अन्य भक्त मथुरा आए तो उन्हें जम्बू स्वामी के चरणचिह्नों के दर्शन हुए। उसके बाद जैन श्रावकों ने मिलकर दिल्ली-आगरा बाईपास पर मथुरा में स्थित तपोभूमि को जैन सिद्ध क्षेत्र चौरासी के नाम पर पूजना प्रारंभ कर दिया। कालांतर में हजारों श्रावकों ने मिलकर इस स्थान को विश्व प्रसिद्ध तीर्थ क्षेत्र एवं सेवा का केंद्र बनाया।

अपराजेय योद्धा और अवतारी थे जम्बू स्वामी

मान्यता है कि जम्बू स्वामी को बचपन में ही दिव्य शक्तियां प्राप्त थीं। मदांध हाथी को उन्होंने बाल्यकाल में वश में करके यह सिद्ध कर दिया था। यवल काल का एक वृतांत बताता है कि वह युद्ध कला में भी जन्म से प्रवीण थे। बताते हैं कि केरलपुर के राजा रत्नचूल ने चढ़ाई कर दी। वहां के राजा मृगांक ने राजगृह के राजा श्रेणिक से सहायता मांगी। श्रेणिक ने सामंतों की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा तो उन सबने अपनी सिर नीचे कर लिए। इस शर्मनाक स्थिति को देख रहे जम्बू कुमार ने राजा को संबोधित करते हुए कहा कि पृथ्वी नाथ यह तो साधारण बात है और यदि आज्ञा दे तो वह अकेले की रत्नचूल को परास्त कर देंगे।

जब आज्ञा मिल गई तो जम्बू कुमार ने चंद सैनिकों के साथ केरलपुर पर चढ़ाई कर दी। उन्होंने युद्ध किया और न सिर्फ सेना परास्त की बल्कि रत्नचूल को बंधक बनाकर श्रेणिक के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया। जैन धर्म श्रावक उन्हें विद्युतमाली नामक देव का अतवार मानते और श्रद्धा संग पूजते हैं। दस साल से बन रही और अंतिम केवली मथुरा कृष्णा नगर परिसर के पश्चिम दक्षिण दिशा में सुंदन उपवन में मौजूद इस विशाल प्रतिमा के दर्शनों के लिए विश्व भर से श्रद्धालु पहुंचते हैं। इसकी विशालता, सौंदर्य और उपवन की मोहकता अन्य धर्मानुयायियों को भी अनायास ही अपनी ओर आकर्षित करती है।

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